8 साल पूर्व
शनि गृह समस्त नवग्रहों में सबसे क्रूर, सख्त एवं प्रभावशाली पापकग्रह माना गया है। शनि गृह समस्त नवग्रहों में सबसे क्रूर, सख्त एवं प्रभावशाली पापकग्रह माना गया है।
ऐसा देखा गया है की कुण्डली के कुछ विशिष्ट स्थानों में शनि की उपस्थित लाभदायक भी होती है; परन्तु ऐसा संयोग कम ही दिखाई पड़ता है। अधिकतर शनि गृह के प्रभाव से व्यक्ति पीड़ित ही रहते हैं। अधिकांशतः ऐसा देखा एवं सुना जाता है की लोग दुष्ट, दुर्भाग्यशाली, अमंगल, हानिकर और भयानक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति को सामान्यतः ‘शनीचर’ कह कर सम्बोधित कर देते हैं। तात्पर्य यह कि ‘शनिश्चर’अमंगल, हानि और दुर्भाग्य का प्रतीक स्वरुप है। किन्तु यह भी एक अटल सत्य है कि जिस तरह जीवन के साथ मृत्यु का संयोग अवश्यम्भावी है; ठीक उसी प्रकार संसार का प्रत्येक प्राणी, वह चाहे मानव योनि में कोई देवता ही क्यों न हो, शनि से किसी न किसी प्रकार अपने जीवनकाल में अवश्य ही प्रभवित होता है। ढाईं और साढ़े सात वर्षों के लिए शनि की स्थिति लोगों को पीड़ित करती रहती है। यदि जातक की कुण्डली में शनि उत्तम फलदायक स्तिथि में है, तब तो सब सामान्य ही रहेगा। अन्यथा यह पापक गृह जब नीच स्तिथि में होता है तब अपने क्रूर प्रभाव की इतनी भयंकर यन्त्रणा देता है कि प्रभावित जातक का जीवन नारकीय हो जाता है।
इसी शनि गृह का रत्न नीलम है। शनि की प्रभाव हीनता जब व्यक्ति को कष्ट प्रदान कर रही हो तब उस समय नीलम रत्न धारण करके वह व्यक्ति अपनी स्थिति को अनुकूल बना सकता है।
अपने नामानुसार नीलम नीली आभा देने वाला एक खनिज रत्न है। यह पारदर्शी होता है। भारत वर्ष के कश्मीर प्रांत में पाये जाने वाले नीलम रत्न को सर्व-श्रेष्ठ नीलम की संज्ञा दे गई है। वस्तुतः नीलम रत्न विश्व के अन्य कई देशों जैसे बर्मा, श्रीलंका, रूस और अमेरिका में भी उपलब्ध होता है परन्तु कश्मीर एवं श्रीलंका के नीलम रत्न विश्वविख्यात है।
नीलम रत्न अंग्रेजी भाषा में सैफायर नाम से प्रसिद्ध है। यह रत्न फारसी में याकूत, मराठी में नील रत्न, बंगला में इन्द्रनील और संस्क्रत में नीलोपल के नाम से उच्चारित होता है।
सूर्यरत्न माणिक्य की तरह नीलम रत्न भी कुरुन्दम वर्ग का एक श्रेष्ठ रत्न है। सामान्यतः यह नीले रंग की आभा युक्त होता है, परन्तु परस्पर पीला, हरा, बैंगनी और सफेद रंग का नीलम रत्न भी देखने को मिलता है। जहाँ तक नीलम के माध्यम से शनि को सबल और अनुकूल करने की बात होती है, तब नीली आभा युक्त नीलम रत्न ही धारणानुकूल होता है।
नीलम की श्रेष्ठता पहचान उसकी इस कसौटी पर आधारित होती है कि वह सवाँग में एकसमान आभा प्रसारित करता हो; चिकना, पारदर्शी और स्थूल होकर भी स्पर्श में कोमल प्रतीत होता हो। जिस नीलम रत्न का मणिभ प्राकृतिक रूप में स्पष्ट, सुडौल कोणों से युक्त हो, जिसके अंदर से नीली प्रकाश किरणें जैसी फूट रही हों, वह उच्चकोटि का और शुभ रत्न माना जाता है।
नीलम रत्न की शुद्धता एवं श्रेष्ठता को धूप में, चाँदनी रात में, पानी के गिलास में रखकर परखा जाता है। असली नीलम प्रत्येक स्थान और स्थिति में, समान रूप से अपनी नीली ज्योति का आभास देता रहता है।
किन्तु जहाँ शनि दोष के निवारण में नीलम सर्वाधिक समर्थ रत्न है, वहीं दूषित अथवा खंडित होने पर यह सर्वाधिक घातक परिणाम भी प्रदान करता है। अतः नीलम रत्न खरीदते समय यह आवश्यक रूप से ध्यान रखना चाहिए कि वह निर्दोष हो। रत्न तभी शुभ फलदायक होते है जब वे असली और निर्दोष हों। असली होकर भी यदि वह सदोष है, तो ऐसा रत्न किसी काम व मूल्य का नहीं है।
नीलम रत्न दोषयुक्त तब कहा जाता है, जब उसमें कही कही पर सफेद धारियां दिखाई दे रही हो। ऐसे नीलम रत्न को पहनने वाला व्यक्ति शस्त्र द्वारा आहत होकर मृत्यु प्राप्त करता है। ठीक इसी प्रकार यदि नीलम रत्न पर सफेद धब्बे स्थित हो तो धनहानि की सूचना देता है। दुरंगा नीलम रत्न वैवाहिक जीवन में अलगाव एवं बिखराव का कारण बनता है एवं यही नीलम रत्न यदि दरार या गुणक चिन्ह युक्त एवं जालयुक्त होता है तो वह दुःख, दारिद्रय को बढ़ाने का कार्य करता है। गड्ढेदार, खुरदरा, आभाहीन और छोटे-छोटे बिन्दुओं युक्त एवं छीटों युक्त नीलम रत्न भी अत्यधिक अनिष्टकारी प्रभाव वाला होता है। लालिमायुक्त नीलम रत्न तो और भी अनिष्टकारी समझा गया है। इस प्रकार के दोषयुक्त लक्षणों वाले नीलम रत्न तन, मन, धन परिवार और प्रतिष्ठा सभी के लिए अनिष्टकारी एवं अहितकारी माने गए है।
कलयुग में छल कपट का प्रभाव प्रसार दिनप्रतिदिन विस्तार ले रहा है अतः रत्न आदि की खरीद फ़रोख़्त में अत्यधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता है। किसी अनुभवी कुशल परीक्षक से रत्न का परीक्षण कराये बिना, कोई भी रत्न खरीदना समझदारी का कार्य नहीं होगा।
ज्योतिष नियमानुसार जिस किसी व्यक्ति की कुण्डली में शनि ग्रह निर्बल होकर स्थित हो तो वह व्यक्ति शनि गृह के प्रभाव को बढ़ाने एवं स्वाम के अनुकूल करने हेतु नीलम रत्न धारण कर सकता है। परन्तु चूँकि शनि गृह एक बहुत ही क्रूर और उग्र ग्रह समझा गया है अतः नीलम रत्न धारण करने से पूर्व उसकी स्थिति, ग्रह मैत्री, गति और दशा का परीक्षण किसी अनुभवी कुशल ज्योतिषाचार्य द्वारा कुंडली में करवा लेना चाहिए। समस्त नवग्रहों में शनि ही एकमात्र ऐसा ग्रह है जो अपनी चरम क्रूरता के लिए कुख्यात है। यह जिस पर वक्र दृष्टि डाल दे उसे नेस्त नाबूत कर देता है। राजा हरिश्चन्द्र को चक्रवर्ती सम्राट से मरघट के डोम का दास बनाने में शनि गृह प्रमुख कारक था। भगवान् राम, कृष्ण, इन्द्र आदि भी इसके कोप से नहीं बचे। रावण के सर्वनाश में भी शनि की कुदृष्टि एक प्रमुख कारण रही है। राजा नल को आपदाओं के गर्त में ढकेलने वाला यही शनि था। अतः शनि गृह की क्रूरता और विपरीतता से बचाव हेतु आवश्यक है कि नीलम रत्न धारण करने के पूर्व कुण्डली के आधारानुसार शनि गृह की स्थिति का भली भाँति परीक्षण किसी कुशल ज्योतिषाचार्य द्वारा अवश्य करवा लेना चाहिए।
ऐसी मान्यता है की यदि नीलम रत्न का धारण सही समंजन के साथ किया जाय तो वह धारक की रक्षा करता है। शनि के प्रभाव से उत्पन्न सभी विक्षेप और उपद्रव शांत एवं निष्क्रिय हो जाते हैं। आर्थिक सन्तुलन, स्वास्थ्य एवं सम्मान की रक्षा तथा वृद्धि में नीलम रत्न सहायता प्रदान करता है।
ज्योतिष मान्यताओं एवं आयुर्वेद की दृष्टि में भी नीलम एक परम उपयोगी रत्न माना गया है। रोगोपचार की दृष्टि में भी नीलम एक परम उपयोगी रत्न माना गया है एवं इसके माध्यम से विभिन्न रोगों का निवारण किया जाता रहा है। श्वास रोग, मूच्र्छा, ज्वर, यक्षमा, पक्षाघात, स्नायु वेदना आदि की स्थिति में नीलम रत्न धारण से रोगमुक्ति हो जाती है।
नेत्र रोगों को दूर करने में नीलम की परनी को केवड़ा जल में एकसाथ घोटकर तत्पश्चात तैयार घोल को आँखों में डालने से विभिन्न प्रकार के उपद्रव शान्त हो जाते हैं। विक्षिप्तता और उन्माद में नीलम की भस्म चमत्कारी प्रभाव दिखाती है। रक्त विकार, खाँसी, विषम ज्वर आदि तो सहजता से दूर हो जाते हैं।
ऐसी मान्यता है कि नीलम रत्न धारक को कोई क्रूर अथवा कठोर कार्य करने में कोई हिचक नहीं होती। एवं ऐसा भी कहा जाता है कि नीलम रत्न का धारक संसार में कहीं भी जाये, कहीं पराजित नहीं होता। नीलम के प्रभाव से उसका व्यक्तित्व इतना शोभित एवं प्रभावयुक्त बन जाता है कि वह किसी अन्य व्यक्ति के सम्मुख लज्जित, भयभीत एवं कुंठित नहीं होता। पौराणिक ग्रंथो एवं सन्दर्भों के आधारानुसार यह ज्ञात है की शनि केवल हनुमानजी से ही दबता है, अन्यथा वह अजेय है।
नीलम रत्न धारण विधि
नीलम धारण करने हेतु सर्वोत्तम समय शनि ग्रह का मकर अथवा कुम्भ राशि में स्थित होना बताया गया है। दूसरा उचित समय किसी शनिवार के दिन स्वाति विशाखा, चित्रा, धनिष्ठा या श्रवण नक्षत्र हो बताया गया है। नीलम रत्न सदा ही सोने या पंचधातु की अँगूठी में धारण करना चाहिए। रत्न से हितकर परिणाम प्राप्ति हेतु इसे प्राण प्रतिष्ठित करना भी अत्यंत आवश्यक होता है। नीलम अथवा ब्लू सफायर रत्न को धारण करने के लिए सर्वप्रथम प्रश्न उपजता है कि कितने भार अथवा रत्ती का नीलम रत्न धारण किया जाना उपयुक्त रहेगा ? | इसके लिए सर्वप्रथम अपना वजन ज्ञात कर लें | अपने वजन के दसवें भाग के भार बराबर रत्ती का शुद्ध एवं ओरिजिनल नीलम स्वर्ण या पांच धातु की अंगूठी में जड़वाएं | किसी शुक्ल पक्ष के प्रथम शनि वार को सूर्य उदय के पश्चात अंगूठी की प्राण प्रतिष्ठा करें | इसके लिए अंगूठी को सबसे पहले पंचामृत अर्थात गंगा जल, दूध, घी, केसर एवं शहद के घोल में 15 से 20 मिनट तक डाल के रखे, तत्पश्चात स्नान के पश्चात किसी भी मंदिर में शनि देव के नाम 5 अगरबत्ती जलाये, अब अंगूठी को घोल से निकाल कर गंगा जल से धो ले, अंगूठी को धोने के पश्चात उसे 11 बार "ॐ शं शानिश्चार्ये नम:" मन्त्र का जाप करते हुए अगरबत्ती के उपर से 11 बार ही घुमाये, तत्पश्चात अंगूठी को शिव के चरणों में रख दे एवं प्रार्थना करे कि "हे शनि देव में आपका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आपका प्रतिनिधि रत्न धारण कर रहा हूँ कृपा कर मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान करे" तत्पश्चात अंगूठी को शिव जी के चरणों से स्पर्श कराएं व मध्यमा ऊँगली में धारण करे |
नीलम के उपरत्न
नीलम रत्न के अभाव में उसका उपरत्न धारण करने से भी उचित लाभ प्राप्त किया जा सकता है। सशर्त कि वह उपरत्न सच्चा और निर्दोष हो। दूषित रत्न धारण कदापि नहीं करना चाहिए क्यूंकि यह सदा प्रतिकूल परिणाम देने वाला होता है।
‘नीली’ नामक पत्थर को नीलम के स्थानापन्न रत्नों में अग्रिम स्थान प्राप्त है। इसे नीलिया या लीलिया नाम से भी जाना जाता है। संभवतः नीले रंग का होने के कारण ही इसे यह नाम दिया गया है।
लाजवर्त और फीरोजा भी नीलम के पूरक रत्नो में शुमार हैं। कटेला नामक पत्थर भी नीलम का स्थानापन्न रत्न है। जमुनिया को कुछ लोग कटैला बताते हैं परन्तु कुछ का मत है की जमुनिया स्वयं में एक भिन्न रत्न है। मत जो भी रहे परन्तु यह सत्य एवं परीक्षित है कि नीलम रत्न के अभाव में नीलिया, लाजवर्त, कटेला, जमुनिया अथवा फीरोजा धारण करके नीलम रत्न की आंशिक पूर्ति की जा सकती है।
इन सभी उपरत्नों में फीरोजा अत्यधिक महत्तवपूर्ण होता है। अनेक लोग अनुभव कर चुके है कि यदि किसी ने फीरोजा पहन रखा है और उस पर अकस्मात कोई बड़ा संकट आ रहा है, तो फीरोजा चटक जायेगा। इस प्रकार वह स्वयं ही उस आपदा को झेलकर अपने धारक की रक्षा का देता है।
देखने में भी फीरोजा आँखों को मनमोहक लगता है। जो लोग नीलम न धारण कर सकते हों, वे फीरोजा धारण कर सकते हैं। नीलम जहाँ विपरीत ग्रह स्थिति में धारक को कष्टप्रद हो जाता है। वहीं, फीरोजा शान्त रहता है। अनुकूल स्थिति में लाभ और प्रतिकूल स्थिति में मौन धारण; यह फीरोजा का सबसे बड़ा गुण है। वह या लाभ पहुँचाएगा, अन्यथा हानि भी नहीं करेगा।
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