8 साल पूर्व
मानव देह की उत्पत्ति के साथ ही रोगों की भी उत्पत्ति प्रारम्भ हो गई थी अतः रोगों का इतिहास भी उतना ही पुराना है जितना की मानव शरीर का। फिर भी प्राथमिकता के आधार पर मानव देह को प्राथमिकता प्रदान की गई है। चूंकि यदि देह न होती तो रोग अपना जनित स्थल कहाँ बनाते ? इस प्रकार पहले मानव देह की सृष्टि हुई; फिर सामंजस्य की प्रतिकूलता ने उसमें रोगों की उत्पत्ति की। प्रतिकूल परिस्थितियों के रूप में हम स्थान, वातावरण, आहार, मानसिकता और दिनचर्या एवं व्यवहार की गणना कर सकते हैं।
मानव देह में रोगों की उत्पत्ति के साथ ही तथाकथित रोगों के निवारण व उपचार के उपाय भी खोजे गये। इन उपायों को अचूक एवं विश्वसनीय बनने में सैकड़ों वर्ष लगे होंगे। आविष्कार, अनुमान, अनुभव, परीक्षण, प्रभाव एवं स्थायित्व की सीढि़याँ पार करते करते एक दीर्घावधि के बाद ही वे उपाय जनमानस हेतु अनुकूल एवं लाभप्रद हो सकें होंगे।
अनुभवी मनीषियों एवं आयुर्वेदाचार्यों ने रोग निवारण के कई मार्ग सुझायें है। कुछ आध्यात्मिक हैं; जैसे पूजा पाठ, ईश्वर मनन एवं कुछ सुझाव वानस्पतिक पदार्थों के प्रयोग विशेष से सम्बन्धित हैं। वस्तुतः ओषधि विज्ञान का यही व्यावहारिक रूप सर्वाधिक प्रचलित हुआ। इन सबके साथ एक तीसरा अन्य विधि की भी खोज की गई जो कि भौतिक पदार्थों, धातुओं, पत्थरों एवं रत्नों के प्रयोग से रोग निवारण हेतु जनित हुई। यह उपाय विश्वसनीय व असरकारक होकर भी सर्वसाधारण तक प्रचलित नहीं हो पाया क्यूंकि सम्बन्धित पदार्थों धातुओं एवं रत्नों की उपलब्धि, परख और प्रयोग विधि अपेक्षाकृत जटिल एवं खर्चीली थी इस कारण अपेक्षाकृत शिक्षित एवं सम्पन्न वर्ग ही इससे लाभान्वित हो पाया।
किन्तु समय चक्र के साथ जब सभ्यता, संस्कृति और समृद्धि का विकास हुआ एवं शासन व्यवस्था ने समाज में स्थान निर्मित किया व आमजन को शान्ति और सुरक्षा प्रदान की, तब सामान्य जनो ने भी सामर्थ्यानुसार इन रत्नों एवं धातुओं का प्रयोग प्रारम्भ किया।
यहाँ हम लहसुनिया रत्न के माध्यम से रोग उपचार की उस पद्धति पर प्रकाश डालेंगे जो भारतीय मनीषियों ने गहन अध्ययन, अनुसन्धान और परीक्षण के पश्चात् प्रचलित की थी।
लहसुनिया रत्न की प्रभाव क्षमता
सर्वविदित है की लहसुनिया रत्न केतु ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है एवं चूँकि, केतु राहु का ही अर्धांग है, अतः उसी की प्रवर्तियाँ इसमें भी विधमान हैं। राहु केतु के रत्न भले ही भिन्न भिन्न हैं, परन्तु दोनों की प्रवर्तियाँ एवं प्रभाव लगभग एकसमान ही होते हैं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार केतु ग्रह मंगल ग्रह से भी ज्यादा कष्टप्रद एवं पापक ग्रह है। इस गृह के दुष्प्रभाव से जातक को हृदयरोग, मिरगी, ज्वर, उन्माद, चर्म रोग, श्वास रोग, प्रसूति, अजीर्ण, वात एवं इन्द्रिय सम्बन्धी गुप्त रोगों के होने की सम्भावना रहती है।
केतु का प्रतिनिधि रत्न लहसुनिया अथवा वैदूर्य भी रोग शमन में उपयोगी होता है तथा उचित रूप में प्रयोग करने पर उक्त रोगों के उपचार में काफी हद तक सहायता करता है।
गोमेद की अपेक्षा वैदूर्य अधिक कीमती होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यदि रंग, वर्ण, भार, आकार और विषुद्धता की कसौटी पर खरा उतरने वाला वैदूर्य, कुण्डली की ग्रहस्थिति को देखते हुए, शुभ मुहूर्त में विधिवत पहना जाय, तो उसके प्रभाव से केतु की प्रतिकूलता तथा इससे जनित रोगों एवं विकारों का निराकरण किया जा सकता है।
ज्योतिष शास्त्र के साथ साथ, आयुर्वेद शास्त्र में भी वैदूर्य अथवा लहसुनिया रत्न की महत्ता सर्वमति से स्वीकार की गयी है, क्यूंकि इसकी अनेक रोगों का शमन करने में सक्षमता प्रमाणित हुई है।
आयुर्वेदाचार्यों के अनुभवानुसार उपदंश और मूत्रकृच्छ जैसे जननेन्द्रिय के भयानक एवं कष्टप्रद रोगों से त्रस्त कोई रोगी वैदूर्य की भस्म दूध में मिलाकर उसका नियमानुसार सेवन करे तो निश्चित ही वह स्वास्थ्य लाभ करता है।
नेत्र से सम्बंधित रोगों से पीडि़त व्यक्ति यदि वैदूर्य की भस्म और पीपल की भस्म को मिलाकर उसका नियमानुसार सेवन करे तो उसे पर्याप्त लाभ होता है।
नपुसंकताग्रस्त व्यक्ति वैदूर्य की भस्म का शुद्ध देशी घी के साथ सेवन करे तो पुंसत्व की प्राप्ति का सुख शीघ्र ही अनुभव करता है।
अन्य रोग जैसे रक्तातिसार अर्थात खूनी आँव एवं दस्त आदि रोगों से निवारणार्थ वैदूर्य की भस्म को शहद के साथ सेवन करना परम लाभप्रद होता है।
श्वास के रोगों से पीडि़त बालक के गले में यदि वैदूर्य रत्न धारण करवा दिया जाय तो बालक को रोग से शीघ्र ही मुक्ति मिल जाती है।
वैदूर्य धारण करने से पाण्डु, कामला, पीलिया जैसे रोग दूर हो जाते हैं। वस्तुतः इसका स्पर्श यकृत संस्थान को जाग्रत करके रक्त की गति को सन्तुलित कर देता है।
प्रसव से पूर्व यदि स्त्री को प्रसव पीड़ा अधिक परेशानी उत्पन्न कर रही हो तो उसके सिर पर वैदूर्य बाँध देने से कष्ट दूर हो जाता है।
भस्म या घोवन के अलावा, यदि केवल पहन लिया जाय, तो भी वैदूर्य का प्रभाव अनेकों जटिल से जटिल रोगों का शमन कर देता है। समस्त प्रकार के चर्म रोग, रतिजरोग, इन्द्रिय विकार, वात रोग एवं उदर सम्बंधित विकार वैदूर्य धारण करने से शमित हो जाते हैं।
यहाँ पर यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि बहुमूल्य अथवा अल्पमूल्य, सुलभ अथवा दुर्लभ सभी प्रकार के रत्नों में शुद्धता, निर्दोषिता एवं धारण किये जाने वाले समय की अनुकूलता की विशेष महत्ता है इनके आभाव में कोई भी रत्न अनुकूल परिणाम नहीं दिला पाता, भले ही वह अधिकतम मूल्य चुकाकर ही क्यों न खरीदा गया हो।
इस सन्दर्भ में यह तथ्य स्मरणीय है कि लगभग सभी रत्न अपनी पूर्ण प्रभावात्मकता के लिए शुद्धता निर्दोषता और सामयिकता चाहते हैं। तात्पर्य यह है कि चाहे किसी भी रत्न का उपयोग किया जाय, वह असली हो, निर्दोष हो; और उसके धारण प्रयोग का मुहूर्त भी शुभ हो। विशेष लाभ एवं प्रभाव प्राप्ति हेतु रत्न को धारण से पूर्व शुभ मुहूर्त में विधिवत् मंत्रोचारण से सिद्ध कर लेना चाहिए। यदि वैसा सम्भव न हो तो भी शुद्ध रत्न को लाकर उसे उपयुक्त मुहूर्त में पवित्रतापूर्वक पंचामृत से स्नान कराकर, धूप दीप से उसका पूजन करके, सम्बन्धित ग्रह की प्रार्थना करते हुए ही प्रयोग में लाना चाहिए। विधि विधान का रत्न धारण में अपना अलग महत्व होता है। राह चलते भी रोटी खायी जा सकती है उससे भी पेट भर जाता है। किन्तु चौके पर शुद्धतापूर्वक बैठकर शान्त व एकान्त वातावरण में किया गया भोजन कहीं अधिक स्वादिष्ट, संतुष्टिदायक तृप्तिदायक एवं प्रभावशाली होता है। ठीक यही स्थिति रत्नों की भी है। पूँजी लेकर बाजार गये, रत्न खरीदा और धारण कर लिया, यह उचित एवं श्रेयस्कर नहीं होता है। उचित यह होता है की रत्न को खरीद कर घर लाइये और नियमानुसार शुद्धतापूर्वक विधि विधान से उसका पूजन करके पहनने से ही यह अनुकूल लाभ प्रदान करता है अन्यथा अहितकारी व प्रतिकूल प्रभाव प्रदान करता है।
नोट : अपने जीवन से सम्बंधित जटिल एवं अनसुलझी समस्याओं का सटीक समाधान अथवा परामर्श ज्योतिषशास्त्र के हॉरोस्कोप फॉर्म के माध्यम से अपनी समस्या भेजकर अब आप घर बैठे ही ऑनलाइन प्राप्त कर सकते हैं | अधिक जानकारी आप ज्योतिषशास्त्र के FAQ's पेज से प्राप्त कर सकते हैं |
© The content in this article consists copyright, please don't try to copy & paste it.