8 साल पूर्व
भारत वर्ष के ज्योतिषाचार्यों व ऋषि मुनियों ने चन्द्रमा को आधार मानकर ज्योतिषीय मान्यतायें स्थापित की हैं। परन्तु इसके बिलकुल विपरीत पश्चिमी देशों जैसे - अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि में सूर्य को आधार मानकर ज्योतिषीय मान्यतायें स्थापित की हैं। वहाँ के ज्योतिषाचार्य सूर्य की स्थिति के आधार पर ही ज्योतिषीय निर्णय करते हैं।
पश्चिमी देशो के ज्योतिषी वस्तुतः ज्योतिष शास्त्र पर आस्था रखते हैं एवं रत्नों के समथर्क भी हैं; परन्तु रत्न धारण के सम्बंध में उनके सिद्धान्त व मान्यताएँ कुछ अलग है। उनकी मान्यता है कि ग्रह और लग्न की अपेक्षा अंग्रेजी महीनों के आधार पर रत्नों का चुनाव करना श्रेयस्कर रहता है। वे मुख्यतः सूर्य-पद्धति के उपासक हैं। स्थान एवं काल तथा दशा के आधार पर सम्भव है उनके यहाँ अंग्रेजी महीनों का क्रम ही रत्न धारण में अधिक अनुकूल सिद्ध होता हो। सूर्य और चन्द्रमा अखिल ब्रह्माण्ड में एक ही हैं, परन्तु देश काल के अनुसार, दूरी के अनुपात में, उनकी तिथि, ताप, प्रकाश वर्ण और संचरण समय में अत्यधिक अन्तर पाया जाता है। भारत में भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो पश्चिमी मान्यताओं के समर्थक हैं। ऐसे आस्थावान व्यक्तियों के लिए अग्रलिखित विवरण उपयुक्त होगा। इनमें पाश्चात्य मतानुसार, प्रत्येक महीने के लिए स्वीकृत रत्न का उल्लेख किया गया है -
महीना | धारणीय रत्न |
---|---|
जनवरी | मूँगा |
फरवरी | एमेथिस्ट |
मार्च | एक्वोमेरीन |
अप्रैल | हीरा |
मई | पन्ना |
जून | सुलेमानी पत्थर |
जुलाई | माणिक्य |
अगस्त | गोमेद |
सितम्बर | नीलम |
अक्टूबर | चन्द्रकान्त |
नवम्बर | पुखराज |
दिसम्बर | वैदूर्यमणि |
यह विचित्र संयोग ही है कि इन बारह महा में बारहों राशियाँ भी समाविष्ट हो जाती हैं, जो पूरे वर्ष काल का समय अपने नियन्त्रण में रखती हैं। हाँ, राशि की विवेचना के आधार पर, पश्चिमी ज्योतिषविद भी एक पूरे महीने को एक राशि न मानकर दो महीनों के तीस दिन लेकर एक महीने का समय निर्धारित करते हैं। उनके देश में उनकी गणना ठीक भी है।
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