8 साल पूर्व
मनुष्य आदि काल से इस धरती पर विचरण व निवास कर रहा है। प्रत्येक मनुष्य भिन्न भिन्न शारीरिक संरचना, मानसिक व विवेक शक्ति, भावना व कल्पना शक्ति, कार्य क्षमता, रुचि, व्यवहारिक दृष्टिकोण व प्रकृति आदि लिए हुए है।
सौरमंडल में स्थित प्रत्येक ग्रह से समस्त रत्न विभिन्न रूपों से प्रभावित होते हैं। इस प्रभाव का प्रकार एवं सीमा जानने के लिए आवश्यक है कि हम प्रत्येक ग्रह का प्रभाव क्षेत्र जान लें। अर्थात् हमें यह ज्ञात हो कि मनुष्य के जीवन में कोई ग्रह उसके किन किन कार्यों, विचारों, अंगों, रोंगों आदि को किस प्रकार एवं किस किस रूप में प्रभावित करता है। विद्धान महृषियों एवं ज्योतिषाचार्यों ने व्यक्ति के सम्बंध में प्रत्येक ग्रह के प्रभाव क्षेत्र का विभिन्न ग्रंथों एवं पुस्तकों के माध्यम से जो ज्ञान दर्शन आमजन को प्रदान किया है उसके कुछ महत्तवपूर्ण अंश निम्नलिखित हैं –
सूर्य :
लाल रंग का यह परम तेजस्वी ग्रह जातक को पिता एवं भाई का सुख प्रदाता है। सूर्य ग्रह हृदय, नाड़ी संस्थान, शिरोभाग, पीठ, अस्थिपंजर, दायें नेत्र एवं ज्ञान, मानसिक शुद्धता, आत्मसंयम, रुचि, स्वास्थ्य आदि का पोषण व नियंत्रण प्रदान करता है। व्यावहारिक जीवन में यह मनुष्य की न्यायालय सम्बन्धी, यान्त्रिकी, रत्न व्यवसाय, औषधि संबंधी व्यवसाय, चित्रकला, राजपाट, राजसेवा, लाटरी एवं सट्टा आदि क्षेत्र में संरक्षण प्रदान करता है। जातक की जन्म कुंडली में प्रतिकूल स्थिति में पित्त विकार एवं पित्तज सम्बंधित रोगों की उत्पत्ति करती है। जातक के पाचन संस्थान का पोषक होने के कारणवर्ष सूर्य ग्रह जातक की भूख व पाचनशक्ति को भी प्रभावित करता है। सूर्य ग्रह की प्रतिकूलता के निवारणार्थ विद्धान मह्रिषी एवं ज्योतिषाचार्य माणिक्य रत्न धारण करने का परामर्श सुझाते है। माणिक्य के अभाव में इसका उपरत्न लालड़ी भी धारण किया जा सकता है। लालड़ी को लाल अथवा सूर्यमणि के नाम से भी जाना जाता हैं।
चन्द्रमा :
सूर्य ग्रह के प्रकाश से ज्योति प्राप्त कर सफेद चाँदनी बिखेरने वाला ग्रह चन्द्रमा सर्वाधिक शोभित एवं शान्ति प्रदाता ग्रह है। चन्द्रमा ग्रह जातक के मन, स्मरणशक्ति, बुद्धि, भावना, रक्त, वामनेत्र व छाती आदि अंगों को नियंत्रित करता है। चन्द्रमा ग्रह साहित्यसृजन, नाट्य, ललित कला, गीत, काव्य, ओषधि एवं अन्न सम्बन्धी व्यवसाय, आयात एवं निर्यात, लवण एवं जल अथवा सिंचाई सम्बन्धी कार्य, काँच का सामान, सम्पदा, मातृपक्ष, यश, मानसिक उद्वेग आदि क्षेत्रों के नियमन में विशेष प्रभाव डालता है। जातक की जन्म कुंडली में चन्द्रमा ग्रह अनुकूल स्थिति में सुख समृद्धि जबकि प्रतिकूल स्थिति में हानि, पीड़ा एवं सन्त्रास देता है।
मंगल :
मानव देह को मंगल ग्रह बेहद प्रबल रूप से प्रभावित करता है। मंगल ग्रह गर्भ, गर्भपात, भ्रूणहत्या, रक्त सम्बन्धी विकार, कर्ण चर्म एवं पित्त सम्बन्धी विकार, शिरोभाग, अण्डकोष आदि को प्रभावित करता है। यह ग्रह मानव में स्थित अनेक प्रवृत्तियों जैसे-वीरता, घैर्य, उग्रता, साहसिक कार्य, युद्ध, रक्तपात, मारपीट, संघर्षप्रियता आदि को भी नियन्त्रित करता है। मानव की साहसिक क्षेत्र में सफलता अथवा असफलता, सेना तथा आरक्षी विभाग में रुचि, देश भक्ति, ओज व तेज एवं पराक्रम का निर्णायक भी मंगल ग्रह को ही विद्धान मह्रिषी एवं ज्योतिषाचार्यों ने घोषित किया है।
बुध :
विद्धान मह्रिषी एवं ज्योतिषाचार्यों ने बुद्ध ग्रह को बुद्धि तत्व का स्वामी घोषित किया है। बुद्ध ग्रह यूँ तो एक सौम्य व शान्त ग्रह की श्रेणी में रखा गया है परन्तु अन्य क्षेत्रों पर भी इसका पर्याप्त प्रभाव रहता है। मानव देह में स्थित कुछ अंग व भाग जैसे - वक्ष, वाणी, मस्तिष्क, शिरोभाग, आन्त्र संरचना, वायु एवं रक्त सम्बन्धी विकार, भौतिक पीड़ा शिरोभाग आदि बुध ग्रह के ही नियंत्रण में होते हैं। जातक की जन्म कुंडली में यदि बुद्ध ग्रह निर्बल स्थिति में है तो इसके कारण जातक की देह अनेकों प्रकार के विकारों व रोगों से आक्रान्त हो जाती है; जैसे विस्मृति, शिरोपीड़ा, भ्रान्ति, उन्मत्ता, श्वास, खाँसी, वाणी विकार, मुख, कुष्ठ, कण्ठ सम्बन्धी विकार, श्वासरोग एवं दुष्कल्पनायें आदि। व्यावहारिक जीवन में बुध ग्रह से प्रभावित जातक व्यवसाय, बैंक, बीमा, शेयर, व्यापार, सामूहिक व्यवसाय आदि में विशेष रुचि लेता है। चिन्तन एवं प्रतिभा के क्षेत्र में भी बुध ग्रह जातक की बौद्धिक क्षमता को प्रभावित करता है। ज्योतिष, सामुद्रिक, क्रीड़ा, मनोविज्ञान आदि विषयों के प्रति मानव में रुझान उत्पन्न करने का श्रेय बुध ग्रह को ही प्राप्त है।
गुरु :
पौराणिक सन्दर्भ में देवताओं का गुरु कहा जाने वाला यह एक ऐसा प्रभावशाली और विशालकाय ग्रह है जो अपनी तेजस्विता के लिए प्रख्यात है। शारीरिक दृष्टि से यह मानवदेह की दृढ़ता, कष्ठ रोग, वात विकार, गुप्तेन्द्रिय के दोष का नियन्त्रण करता है। वैसे यह विद्वता, तीर्थाटन, मंगल कार्य, धर्म कर्म, कृषि एवं संपत्ति का भी नियामक हे। वृहस्पति ग्रह का प्रभाव प्रमुख रूप से मानव को अग्रवर्णित क्षेत्रों की दिशा की ओर प्रेरित करता है- लेखन, प्रकाशन, साहित्य सृजन, अध्यात्म, तन्त्र मन्त्र, वेद शास्त्र, राजनीतिक, प्रशासन, न्याय विभाग, सदाचार, विवके, सादगी तथा सौम्य व्यवहार आदि।
शुक्र :
शुक्र ग्रह वस्तुतः वैभव, विलास एवं ज्ञान का प्रतीक हे। ज्योतिष अनुसार इस ग्रह को शृंगार सज्जा एवं कलात्मकता का पोषक कहा गया है। शुक्र गृह जातक में कामशक्ति, चर्म रोग, गुप्तेन्द्रिय, वीर्य, नेत्र, रक्त आदि की स्थिति को नियंत्रित करता है। शुक्र ग्रह से प्रभावित व्यक्ति बडे चंचल, उदार, ओजस्वी, निश्छल, प्रणयी, कामी, विलासी एवं इन्द्रिय सुख के दास होते हैं। साथ ही उनमें रूप, सौन्दर्य, वाक्चातुर्य, प्रतिभा, कलासौष्ठव, प्रतिष्ठा एवं नृत्य संगीत के प्रति प्रबल अनुराग भी रहता है। प्रणय, पशुधन, पुरातत्व, लेखन सामग्री, विलासिता की वस्तुयें, प्रसाधन सामग्री, परिवार, वाहन सुख, भौतिक समृद्धि, अभिनय, स्वादेच्छा, मादकतानुराग, प्रतियोगिता, स्पर्धा, चिकित्सा, विज्ञान, तन्त्र व मन्त्र, गुप्त विधा बोध, भाषण शक्ति, लेखन, काव्य सृजन, स्वच्छता, चारुता, व्यवस्था, शृंगार प्रेम एवं भावुकता आदि के क्षेत्र में जातक के रुझान में शुक्र ग्रह का प्रबल योगदान एवं प्रभाव होता है।
शनि :
ज्योतिष मतानुसार शनि ग्रह की गणना सौरमंडल के सर्वाधिक क्रूर ग्रह के रूप में होती है परन्तु कुछेक स्थितियों में यह शुभ फल भी प्रदान करता है। वस्तुतः शनि ग्रह जातक की देह के वातसंस्थान, पुंसत्व, स्नायुमण्डल एवं गुह्य प्रदेश को प्रभावित करता है। ऐसा देखा व अनुभव किया गया है कि शनि ग्रह से प्रेरित जातक नीच प्रवृतियों के आधीन होता है जैसे - आपराधिक कृत्य चोरी, डकैती, ठगी, विष प्रयोग, दुष्ट संगति, पारिवारिक कलह, दाम्पत्य कटुता, वैर विरोध की उत्पत्ति आदि। जिस जातक की जन्म कुंडली में शनि ग्रह अशुभ एवं प्रतिकूल स्थिति में होता है वह जातक कुविचारी, नीच कर्मकर्ता एवं पतित हो जाता है। यदि यही शनि गृह अनुकूल हो तो जातक को काले रंग सम्बंधित कार्य जैसे - लौह व्यवसाय, प्रस्तर व्यवसाय, यान्त्रिकी, तैलीय पदार्थ, चर्म सम्बंधित व्यवसाय आदि में सहायक भी सिद्ध होता है। बौद्धिकता में सम्पन्न जातक शनि की अनुकूलता पाकर सिद्ध सन्त, संन्यासी, वकील, दार्शनिक एवं योगी भी हो जाते हैं।
राहु :
सौरमंडल में स्थित राहु ग्रह एक पापक ग्रह के रूप में विख्यात है। पापक ग्रह होने के कारण यह जातक में अनिद्रा, कुतर्क, बकवास, परछिद्रान्वेषण की भावना उत्पन्न करता है। मादक पदार्थ, कौतुक, इन्द्रजाल, भूत प्रेतों से सम्पर्क, प्रचार कार्य, घपला, चमत्कार, राजनीति, प्रशासन, आकस्मिक कार्य, आत्म प्रशंसा, प्रभुत्व, मध्यस्थता आदि के सम्बन्ध में व्यक्ति का जीवन राहु से सर्वाधिक प्रभवित होता है।
केतु :
यह भी राहु ग्रह की भाँती एक पापक ग्रह है एवं लगभग राहु जैसा ही इसका भी प्रभाव है। जातक के जीवन काल में उसके आचरण, व्यवहार एवं रोगों का निर्णय जातक की जन्म कुंडली में केतु ग्रह की स्थिति के अनुसार ही किया जाता है। कुंडली में केतु गृह की स्थिति के माध्यम से ज्योतिषाचार्य सम्बंधित जातक के सम्बन्ध में इन विषयों की जानकारी सरलता से ज्ञात कर सकते हैं- शारीरिक गठन, दुर्बलता, चर्म रोग, व्यभिचार प्रवृत्ति, अपराध संलिप्तता, व्यवसाय, तस्करी, साहसिक कृत्य, समुद्र यात्रा, अनैतिक विचार आदि।
उक्त विवेचना के आधारानुसार रत्न धारण एवं उसके वांछित प्रभाव प्राप्ति हेतु उपयुक्त रत्न का चुनाव शुद्धतापूर्वक किया जा सकता हैं। ज्ञात है की यदि सम्बंधित ग्रह सबल है तब तो कोई बात ही नहीं निश्चित मन से कार्य प्रारम्भ कर दिया जाना चाहिए किन्तु यदि उस कार्य से सम्बन्धित ग्रह की स्थिति निर्बल है तो उसकी शक्तिपूर्ति हेतु उस ग्रह से सम्बंधित उपयुक्त रत्न को धारण किया जाना चाहिए।
रत्नों का प्रयोग अपने आप में एक जटिल एवं तकनीकी विषय है, अतः धारण करने के पूर्व किसी योग्य एवं आवुभवी ज्योतिषाचार्य से जन्म कुंडली की सही प्रकार विवेचना अवश्य ही करा लेनी चाहिए।
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