8 साल पूर्व
दिशा की महत्तता :
आर्य ग्रन्थों में स्पष्ट निर्देश मिलता है कि मनुष्य को कौन सा कार्य किस दिशा की ओर अभिमुख होकर करना चाहिए। प्रत्येक दिशा का व्यक्ति के कार्य, व्यवहार, मनोवृत्ति, चिन्तन एवं देह पर निश्चित प्रभाव पड़ता है चूंकि भौगोलिक संरचना प्राणिमात्र के सूक्ष्म से सूक्ष्म शारीरिक अवयवों को प्रभावित करती है। आर्य ग्रन्थों में दिशाजन्य प्रभाव के आधार पर करणीय, अकरणीय कार्यों की विस्तृत विवेचना प्राप्त होती है। पढ़ने मात्र से यह सब भले ही अन्धविश्वास प्रतीत होता हों, परन्तु व्यावहारिक परीक्षण के उपरान्त दिशाजन्य प्रभावों के अनुभव से आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी यह निष्कर्ष दिया है कि प्रत्येक दिशा का पर्यावरण पर भिन्न प्रभाव रहता है जिसकी प्रतिक्रिया हम विभिन्न कार्यों में स्पष्ट अनुभव कर सकते हैं।
साधक को प्रातः कालीन संध्या, पूजन, जप आदि के लिए पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए। आर्य ग्रन्थों में स्पष्ट निर्देश मिलता है कि मन्त्र साधना जैसे कार्यों के लिए पूर्व दिशा श्रेष्ठ होती है। ‘शतपथ ब्राह्मण’ग्रन्थ में एक उल्लेख है-
प्रामी हि च देवानां दिक् | अर्थात्, देवताओं की दिशा पूर्व ही है।
किन्तु यदि अनुष्ठान, संध्या समय में किया जाना है तो, साधक को पश्चिम दिशा की ओर अभिमुख होकर बैठना चाहिए क्योँकि वस्तुतः सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को सूर्य से ही ऊर्जा प्राप्त होती है। अतः सूर्याभिमुख बैठने से साधक को अनुकूल ऊर्जा प्राप्त होती है। सूर्य से प्राप्त ऊर्जा से साधक की तेजस्विता स्थिर रहती है, जिस कारण साधक अक्लान्त व पूर्ण मनोयोग एवं स्थिरता के साथ बिना विचलित हुए लम्बे समय तक बैठकर जप क्रिया करने में सक्षम होता है।
वैदिक कालीन ऋषि मुनियों के मतानुसार प्रत्येक देवता को उसकी निश्चित दिशा का स्वामित्व प्राप्त है। इन्द्रदेव को पूर्व एवं दक्षिण दिशा का स्वामित्व प्राप्त है, वरुणदेव को पश्चिम दिशा का स्वामित्व प्राप्त है एवं सोमदेव को उत्तर दिशा का स्वामित्व प्राप्त है। अथर्ववेद, ब्राह्मणोपनिषद्, उड्डीशतन्त्र आदि ग्रन्थों में साधना के लिए दिशा विचार पर बहुत बल दिया गया है। उड्डीशतन्त्र कहता है- आयु एवं शरीर हेतु किये जाने वाले शान्तिकर्म, पुष्टिकर्म एवं रक्षाकर्म के लिए साधक को उत्तर की ओर अभिमुख होकर जप करना चाहिए।
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