8 साल पूर्व
वेदों पुराणो में वर्णित है कि मंत्रजप की सिद्धि व सफलता के लिए मन्त्रानुष्ठान की समाप्ति के उपरान्त जपे गए मन्त्रों के दसवें भाग के बराबर हवन करना आवश्यक होता है। इस हवन को दशमांश हवन कहा जाता है। हवन, होम और यज्ञ तीनों का भाव एक ही है। इस क्रिया में पवित्र समिधा के माध्यम से अग्नि प्रज्वलित की जाती है व कुछ विशिष्ट पदार्थों के मिश्रण से हवन सामग्री तैयार की जाती है तदुपरांत इसे मन्त्रोच्चारण करते हुए शुद्ध गाय के घी के साथ हवनकुंड में अर्पित किया जाता है। प्रत्येक बार मन्त्र के अन्त में ‘स्वाहा’ शब्द के उच्चारण का प्रावधान भी किया गया है।
हवन का महत्व
हवन अथवा यज्ञ का महत्व भी विज्ञान सम्मत है। विशिष्ट पदार्थों के मिश्रण से जो हवन सामग्री तैयार की जाती है उसके शुद्ध गाय के घी के साथ जलने पर वायुमण्डल में एक प्रकार का सुगन्धित धुआं निकलता है। यह धुआं प्रदूषणनाशक, वायुशोधक, सात्विकताकारी एवं भूतबाधा निवारक होता है। आध्यात्मिक दृष्टि से यदि इसका महत्तव वर्णित करें तो इस धुएं के प्रभाव व साधक के मन्त्रजप से आकृष्ट हो देवता, सन्तुष्ट व प्रसन्न होकर साधक की कामनापूर्ति हेतु सदय हो जाते हैं। वैसे भी तन, मन एवं वातावरण को शुचितामय बनाने में हवन क्रिया से उत्पन्न धुएं का चमत्कारी प्रभाव होता है।
हवन कार्य के लिए लकड़ी एवं कुछ अन्य विशिष्ट वस्तुओं के प्रयोग हेतु विशेष नियम
हवन कार्य के लिए कुछ विशिष्ट व पवित्र वृक्षों की लकड़ियों के उपयोग का ही प्रावधान किया गया है जैसे आम, गूलर, पीपल, बरगद, फलास आदि। बेर, बबूल, कैथा, सिरस आदि वृक्षों की लकड़ियों का उपयोग वर्जित किया गया है। इसी प्रकार हवनसामग्री में भी कुछ विशिष्ट वस्तुओं के मिश्रण का ही प्रावधान किया गया है जो इस प्रकार से हैं- जौ, चावल, तिल, शक्कर, गाय का घी, छुहारा, किशमिश, बादाम, चिरौंजी मुनक्का, मखाना आदि। इस सब वस्तुओं के मिश्रण से मिलाकर बनायी गयी सामग्री को श्रेष्ठ माना गया है। वैसे, सर्वश्रेष्ठ हवन सामग्री वह होती है, जिसमें उक्त वर्णित वस्तुओं के साथ साथ यदि अग्रलिखित औषधियां भी हवन सामग्री में मिलाई जाएँ तो ऐसी हवन सामग्री सर्वश्रेष्ठ बताई गई है। ये औषधिय गुण रखने वाली कुछ वस्तुएं इस प्रकार से हैं- अगर, गूगल, मुलहटी, ब्राह्मी, चन्दन, लाल चन्दन, जावित्री, लौंग, दालचीनी, पटोलपत्र, शंखपुष्पी, तरग, देवदारु, अश्वगन्धा, जायफल, गिलोय, इलायची, गोखरू, केसर, नागकेशर, खस, आंवला, कपूरकचरी, इन्द्र जौ, बालछड़, पवांरबीज, मोचरस, पुष्करमूल, मजीठ, छरीला, शतावरी, धामपुष्प आदि।
हवन के प्रकार व क्रियाविधि हेतु नियम
हवन कई प्रकार का होता है व कई विशिष्ट पर्वों, उत्सवों एवं धार्मिक क्रिया कलापों में भी हवन का प्रचलन है। कुछ साधक तो नित्य पूजा के समय भी हवन का आयोजन करते हैं। ऋषि मुनियों ने मन्त्र जप आरम्भ करने से पूर्व सामान्य रीति से धूप दीप नैवेद्य अर्पित करने का नियम व प्रचलन सुझाया है। अभीष्ट संख्या में मन्त्र जप की समाप्ति पर, उक्त वर्णित वस्तुओं से दशमांश हवनक्रिया सम्पन्न की जाती है। नियमानुसार, मंत्रजप के उपरान्त दशमांश हवन हेतु हवनकुण्ड का निर्माण यथासम्भव जप स्थल के निकट ही होना चाहिए। हवन में निर्देशित मन्त्र का उच्चारण करते हुए ‘स्वाहा’ शब्द ध्वनि के साथ अग्नि में शुद्ध गाय के घी व उक्त वर्णित विशिष्ट वस्तुओं के मिश्रण से निर्मित सामग्री की आहुति डाली जाती है। अन्तिम आहुति को ‘पूर्णाहुति’ कहते हैं।
पूर्णाहुति के पश्चात् साधक को देवता से क्षमा याचना की प्रार्थना करनी चाहिए कि-‘हे देवता, इस समस्त क्रिया में, मन्त्रजप में, अथवा मेरी भावना, व्यवहार और आचरण में कहीं कोई त्रुटि हो गयी हो, तो उसे क्षमा कीजिए'।
क्षमा याचना के बाद, परम श्रद्धापूर्वक, हवनकुण्ड से कुछ मात्रा में भस्म लेकर मस्तक पर उसका लेपन करना चाहिए। भस्मलेपन के गुणों को चिकित्सा विज्ञान ने भी मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है। भस्म धारण अथवा लेपन के पश्चात् साधक को चाहिए कि वह देव प्रतिमा, हवनकुण्ड एवं आकाश की ओर उन्मुख होकर समस्त देवी देवताओं को प्रणाम करे एवं स्वयं को उनके चरणों में समर्पित कर दे।
प्रणति निवेदन के पश्चात् प्रदक्षिणा और विसर्जन का विधान है। विसर्जन मन्त्र साधना का अन्तिम चरण है। इसके बाद साधक अपनी दैनिकचर्या के लिए स्वतन्त्र हो जाता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अपनी नैतिकता, सद्वृत्ति, आस्तिकता एवं संयम का परित्याग करके उच्छृखल जीवन बिताये अपितु इन गुणों को तो उसे सदैव ही स्वमं में समाहित रखना चाहिए, क्योकि उसके तपः प्रभाव को स्थायी बनाने में यही सहायक होते हैं।
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