ज्योतिषशास्त्र : मन्त्र आरती चालीसा

मन्त्रानुष्ठान में गुरु की महत्तता एवं योग्य अयोग्य गुरु के लक्षण

Sandeep Pulasttya

7 साल पूर्व

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मन्त्रानुष्ठान का प्रमुख सूत्र संचालक गुरु को ही माना गया है क्यूंकि मन्त्र की दीक्षा गुरु से ही प्राप्त होती है एवं बिना दीक्षा के साधक कैसी साधना करेगा ? गुरु से प्राप्त मन्त्र को जपकर ही सफल साधना की जा सकती है, इधर उधर से प्राप्त मन्त्र जो जपकर साधना तो की जा सकती है किन्तु वह सफलता को प्राप्त नहीं करती। अतः साधना क्षेत्र में गुरु की गरिमा एवं उसका महत्तव स्वयंसिद्ध है। आज के इस भौतिक युग में जहां सर्वत्र अर्थ की प्रधानता है, ऐसे में सभी गुरु इस पद का निर्वहन सही प्रकार से नहीं कर पाते। आधुनिक समाज में श्रेष्ठ गुरु की खोज करना उसी प्रकार सरल नहीं है रह गया है जिस प्रकार पत्थरों के बीच से मणि खोजना सरल नहीं है। क्यूंकि चहुँ ओर स्वार्थ, पाखण्ड, अविश्वास, छल एवं शोषण का बोलबाला है।

 

गुरु की महत्ता

शास्त्रों के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति मन्त्र प्राप्ति के उद्देश्य से किसी गुरु की शरण लेता है, तो सम्बंधित व्यक्ति को चाहिए कि वह तथाकथित गुरु के सम्बन्ध में भली भांति जानकारी प्राप्त कर ले। मन्त्र साधना में गुरु का स्थान सबसे पहला एवं सर्वथा उच्च होता है फिर साधना चाहे वेद मन्त्र की हो अथवा आगम मन्त्र की, उसमें  गुरु से प्राप्त मन्त्र ही विधिवत् साधना करने पर फलदायक सिद्ध रहता है। किसी भी ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु सर्वाधिक प्रामाणिक एवं आवश्यक व्यक्ति होता है। योग्य गुरु से ग्रहण किया गया मन्त्र ही कल्याणकारी एवं फलदायक होता है।

 

योग्य गुरु के लक्षण

शास्त्रों में योग्य गुरु के लिए अनिवार्य विशेषताओं के सन्दर्भ में कुछ लक्षण देते हुए बताया गया है की योग्य गुरु वह हो सकता है जो सत्यवादी हो, शान्त चित्त हो, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चूका हो, दैनिक कर्मकाण्डम में रत रहता हो, गुरुजनसेवी एवं अपनी बात के अनुसार उचित आश्रय की चर्यापूर्ति करने वाला हो, अपने देश या स्थान में रहने वाला हो, ब्राह्मण कुल से हो, इन लक्षणों वाला ही गुरु पद प्राप्ति के योग्य होता है। जिसमें ये लक्षण अनुपस्थित है वह गुरु पद के अयोग्य हैं।

ब्राह्मण कुल से होने के साथ साथ गुरु को कुलीन व विनम्रशील तथा अहंकार से दूर भी होना चाहिए। जो गुरु अहंग्रस्त होता है वह अविवेकी होता हे। जबकि जो गुरु विनम्रशील, शान्त एवं  धैर्यवान होता है वह अपने शिष्य के प्रति सहजभाव रखता है एवं शिष्य का मंगल करने वाला होता है। गुरु को सात्विक विचार वाला एवं साधारण रहन सहन वाला होना चाहिए। स्वच्छ वस्त्र धारण करने वाला, मन्त्र तन्त्र साधना का ज्ञाता, पवित्र आचरण रखने वाला, निन्दा व प्रशंसा से विरक्त, सांसारिक भोगादि से मोह न रखने वाला, सत्यनिष्ठ, उदार, विद्धान, लोकसेवाव्रती, दयालु एवं निःस्वार्थ  जान कल्याण करने वाला व्यक्ति ही गुरु बनने योग्य श्रेष्ठ माना गया है। इन गुणों के अभाव वाला व्यक्ति, चाहे वह कितना भी बड़ा विद्धान व ज्ञाता ही क्यों न हो, गुरु पद के अयोग्य होता हैं, क्यूंकि ऐसा गुरु अपने शिष्य का उचित मार्ग दर्शन व ज्ञान वर्धन नहीं कर सकता।

आज के इस आधुनिक युग में इस कसौटी पर खरा उतरने वाला कदाचित् ही कोई ब्राह्मण अथवा सन्त मिल सकेगा। पर वस्तुतः यह भ्रम है। आज भी अनेक ऐसे दिव्य पुरुष मौजूद हैं, जिनके लिए ये सभी विशेषतायें अतिसामान्य हैं। आवश्यकता है केवल उन्हें खोज पाने की। ऐसी दिव्यविभूतियां भौतिक मायाजाल से परे, सम्पन्नता की चकाचैंध से विरत, नितान्त सामान्य स्तर का जीवन बिताते हुए परम सन्तुष्ट हैं। बाह्म दृष्टि से वे हेमं पिछड़े हुए, पुराणपन्थी, पोंगापण्डित, अन्धविश्वासी, कूपमण्डक और अल्पज्ञ प्रतीत होते हैं, पर वास्तव में वे उन गुणों से पूर्णतया सम्पन्न हैं, जिनकी योग्य गुरु के लिए आवश्यकता होती है।

 

अयोग्य गुरु के लक्षण

शास्त्रों में योग्य गुरु के लिए अनिवार्य विशेषताओं के अयोग्य गुरु के लक्षण भी बताये गए हैं। निम्नलिखित लक्षणों से युक्त व्यक्ति को ‘गुरु’ पद पर आसीन करने को निषेध किया गया है-

धूर्त, ईर्ष्यालु, क्रोधी, स्त्रीवर्ग के प्रति आसक्त, चंचल, लोभी, पाखण्डी, षड्यन्त्रकारी, धनोपार्जन की चिन्ता में लीन रहने वाला, कामुक, अभिशप्त, पीताभ अथवा पीलिया रोग से ग्रस्त, श्वेतकुष्ठ से ग्रस्त, विकृत दन्त वाला, नेत्र रोगी, अहंग्रस्त, गुरुनिन्दक, विकृत नाखूनों वाला, दैनिक कर्मकाण्ड से विरत, मादक पदार्थों का सेवी, अस्वाभाविक रूप से छोटे कद वाला अर्थात बौना, स्वाभाविक से अधिक या कम अंगों वाला अर्थात छंगा, पंगु, विकलांग या एकांक्ष, यशोलिप्सा से अस्थिर चित्त वाला, कपटाचारी, मिथ्यावादी, रुग्ण, दीर्घाहारी अर्थात अतिभोजी व बहुभोजी, व्यर्थ व अधिक बोलने वाला, मूर्ख, विक्षिप्त, परछिद्रान्वेषी, आपराधिक कार्यों में रुचि रखने वाला एवं आतंकवादी ऐसा व्यक्ति गुरुपद के लिए स्वप्न में भी उचित नहीं कहा जाता।

आमजन की दृष्टि में श्रेष्ठता और पहुंचे हुए गुरु की पहचान- उसके भव्य आवास, आधुनिक साज सज्जायुक्त, वातानुकूलित आश्रम, धनीवर्ग के शिष्यों की भीड़, कार, विदेश सम्पर्क, अनेक संस्थाओं का स्वामित्व जैसे अलौकिक एवं दिव्यगुणों से सम्पन्न सन्त महात्मा एवं विद्धान ही पूज्य हैं, बाकी सब मिट्टी के ढेले हैं, परन्तु यह सत्य नहीं है, यह उतना ही बड़ा भ्रम है जितना कि हिमालय पर्वत को समतल कहना।

 

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