8 साल पूर्व
देवों के देव आदिदेव भगवान् शिव सर्वशक्तिमान देवता हैं। भगवान् शिव की महिमा अपरम्पार है जिसका वर्णन करना किसी आमजन के लिए सम्भव नहीं।
शास्त्रों व प्राचीन ग्रंथों के वर्णन अनुसार सभी देवताओं के निवास स्थान परम सुन्दर, सुरम्य, सुख सुविधाओं से सुसज्जित व वैभव से परिपूर्ण है। परन्तु भगवान् शिवजी के निवास स्थान के सन्दर्भ में कहा गया है कि उनका निवास प्रकृति की गोद में स्थित है जो हिमालय पर्वत का दुर्गम व निर्जन क्षेत्र है। यह ऐसा स्थान है जहाँ भयंकर शीत पड़ती है एवं वहाँ कोई पशु पक्षी तक नहीं रह पाता। हिमशिलायें ही उनका राजभवन हैं, उनका सिंहासन भी शीला से ही निर्मित हैं, लम्बी लम्बी बेल व लताएँ साज सज्जा के साधन हैं। वस्तुतः भगवान शिव निस्पृहता से भरपूर, त्यागी एवं आडम्बरों से बहुत दूर हैं।
संसार को वैभव प्रदान करने भगवान शिवजी की उदारता और महानता इस बात से भी स्पष्ट है कि वह स्वयं तो वस्त्र के नाम पर बाघम्बर लपेटे घूम रहे है एवं सम्पदा के नाम पर एक त्रिशूल एवं कमण्डल तथा आभूषणो के नाम पर एक भयंकर काल सर्प व रुद्राक्ष की माला धारण करते हैं परन्तु अपने भक्तों को वर मांगने पर अतुल्य, आदित्य व अमृतोपम वस्तुयें प्रदान कर देते हैं।
घोर कलयुग के इस दूषित वातावरण में भी देवाधिदेव शिव जी के भक्त सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न, दयालु, कृपालु, त्यागी एवं वीतराग देवता की स्तुति, प्रार्थना एवं ध्यान पूजा करके उनकी कृपा के पात्र होने का अनुभव व आनंद प्राप्त कर रहे हैं। शिवजी को चाहे जिस रूप में, चाहे जिस स्थिति में, स्मरण अथवा पूजा जाए, वे अति शीघ्र प्रसन्न हो उठते हैं। इसी कारण शिवजी को ‘आशुतोष’अर्थात शीघ्र ही प्रसन्न हो जाने वाले देवता के नाम से भी पुकारा जाता है।
पौराणिक ग्रंथो में शिवजी की स्तुति, ध्यान, पूजा आदि हेतु अनेक मन्त्र विदित हैं। शिवपुराण, लिंगपुराण, रुद्रयामलतन्त्र, स्कन्दपुराण आदि ग्रन्थों में शिवजी की महिमा का विस्तार पूर्वक वर्णन दिया गया है। इन ग्रन्थों में उन्हें समस्त ब्रह्माण्ड का सर्वश्रेष्ठ योगी, चिकित्सा विज्ञानी, वनस्पति विशेषज्ञ, अस्त्र व शस्त्र का निर्माता, मन्त्रज्ञ, साधक, तपस्वी, तान्त्रिक, ज्योतिषी, धीर व गम्भीर, उदारमना देवाधि देव कहा गया हे। यदि कोई भक्त सच्चे व शुद्ध मन से उनका स्मरण अथवा पूजन करता है तो भक्त की पुकार उसके मन से भी अधिक वेग से देवाधिदेव शिवजी तक पहुँच जाती है एवं उनकी आज्ञा व कृपा से भक्त, कष्टमुक्त व उनका कृपापात्र हो जाता है। यह एक प्रमाणिक तथ्य है कि भारत वर्ष में शिव मंदिरों की संख्या अन्य किसी भी देवी देवताओं के मंदिरों से कहीं अधिक व सर्वव्यापी है।
शिवजी को प्रसन्न करने के लिए अधिक कर्मकाण्ड एवं विधि विधान में न पड़कर यदि भक्त केवल पवित्र एवं शुद्ध मिट्टी से ही शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा करने लगे, तो शिवजी उसका कल्याण कर देते हैं।
शिवजी की भक्ति में आस्था रखने वाले भक्तों के लिए हमने पौराणिक ग्रंथो से कुछ मन्त्र चुने हैं जो निम्नवत हैं। अक्षत, बेलपत्र, चन्दन, धूप, दीप आदि से शिवजी की प्रतिमा की पूजा उसके सम्मुख बैठकर, यदि नियमित रूप से निम्नवत में से कोई भी मन्त्र अपनी सुलभता अनुसार चुनकर जपा जाये तो निश्चित रूप से शिवजी की कृपा का अनुभव साधक को होता है। किसी भी स्थिति में, ये मन्त्र जपे जा सकते हैं। ये मन्त्र समय, तिथि, नक्षत्र, निद और अन्य सभी प्रकार के विधि विधान से सर्वथा मुक्त, स्वयं सिद्ध और परमशक्ति सम्पन्न हैं-
♦ नमः शिवाय।
♦ ओइम् नमः शिवाय।
♦ ऊध्र्व फट्।
♦ प्रौं ह्नीं ठः।
♦ इं क्षं मं औं अं।
♦ ओइम् ह्नीं ह्नौ नमः शिवाय।
♦ ह्नीं ओइम् नमः शिवाय ह्नीं।
♦ ओइम् नमो नीलकण्ठाय।
♦ ओइम् नमो भगवते दक्षिणामूर्तये मह्यं मेधा प्रयच्छ स्वाहा।
♦ ओइम् तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नोरुद्र प्रचोदयात्।
♦ ओइम् जूं सः (.........) पालय-पालय सः जूं ओइम्।
यह अन्तिम मन्त्र बहुत ही प्रभावशाली है। इसे लघु मृत्युंजय मन्त्र भी कहते हैं असाध्य रोगों के कल्यार्णाथ इसका जप किया जाता है। मन्त्र में जहाँ रिक्त स्थान है वहाँ रोगी का नाम लेना चाहिए। रोग निवारणार्थ इस मन्त्र के सवा लाख जप एवं तत्पश्चात दशांश हवन किया जाता है । साथ ही भोजपत्र पर अष्टगन्ध से अनार की कलम से लिखकर किसी भी शुभ मुहूर्त में गुग्गल की धूप देने के बाद, उसे रोगी की बांह पर बांध देना चाहिए। विधिपूर्वक तैयार हो जाने पर यह मन्त्र पुरुष रोगी के दाहिने एवं स्त्री रोगिणी के बायें हाथ में बांध देना चाहिए। ऐसा करने से रोग का निवारण हो जाता है व रोगी कष्ट मुक्त हो जाता है।
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