7 साल पूर्व
माला की उपयोगिता मन्त्र साधना के प्रमुख अंगों में अपना प्रमुख स्थान रखती है एवं सदियों से मान्य है। मन्त्र साधना में जपक्रिया का प्रमुख आधार माला ही है क्यूंकि मन्त्र की जप गणना माला के अभाव में नहीं हो सकती। अंगुलियों के पोरों अथवा फूल, अक्षत आदि से दार्घकालीन साधना का जाप संभव नहीं है। यूँ तो मन्त्र शास्त्रियों ने विकल्प के रूप में करमाला का विधान किया है; परन्तु यह आंशिक विकल्प मात्र ही है। वस्तुतः हजारों लाखों की संख्या में किये गए मन्त्र जप की कोई भी साधक उंगलियों पर सही गड़ना नहीं कर पायेगा। प्राचीन ग्रंथो में फूल, अक्षत, कंकड़ आदि के माध्यम से मन्त्र जप गणना पद्धति का उल्लेख मिलता है; परन्तु यह भी भ्रान्तिमुक्त नहीं है। अंततः माला ही एक ऐसा माध्यम है जिससे साधक सही एवं अभीष्ट संख्या में मन्त्र जप की गड़ना कर सकता है।
प्राचीन ऋषि मुनियों व आचार्यों ने सिद्धि विशेष के लिए माला विशेष का नियम बनाया है। मन्त्र साधना के माध्यम से भिन्न भिन्न उद्देश्यों की पूर्ती हेतु उनसे सम्बंधित अभीष्ट वस्तुओं से निर्मित मालाएं प्रयुक्त की जाती हैं। व्यावहारिक रूप में हम तुलसी, कमलगट्टा, वैजयन्ती, शंख, चन्दन, राजमणि, पुत्र जीवा, स्फटिक आदि की मालायें देखते हैं।
मन्त्र जप के लिए माला का पूर्ण और शुद्ध होना आवश्यक है। पूर्ण माला 108 दानों की होती है व साथ में एक दाना अधिक होता है जिसे सुमेरु कहा जाता है यह माला का 109 वाँ दान होता है। वस्तुतः 1 माला फेरने का अर्थ होता है कि साधक ने अपने अभीष्ट मन्त्र का 108 बार जप किया है। मन्त्र जप के समय माला का एक फेरा पूरा हो जाने पर, सुमेरु तक पहुँचकर, उसे लांघकर आगे बढ़ना वर्जित होता है, ऐसी स्थिति में माला को घुमा लेना चाहिए व वापस फिर से फेरा प्रारम्भ करना चाहिए।
साधक को साधना प्रारम्भ करने के पूर्व अन्य वस्तुओं के साथ एक माला का प्रबन्ध अवश्य कर लेना चाहिए। मन्त्र जप हेतु मूल्यवान अथवा सुन्दर माला उतना महत्तव नहीं रखती, जितना महत्तव उसकी शुद्धता एवं वास्तविकता रखती है। सदोष माला का प्रभाव अनिष्टकारी भी हो सकता है अथवा सदोष माला के प्रभाव से साधना व्यर्थ भी जा सकती है।
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