8 साल पूर्व
सफल मन्त्रानुष्ठान के लिए साधक को नियम संयम विधि विधान के साथ साथ गुरु परामर्श, समय बाध्यता, स्वर, दिशा एवं ऐसे की कई अन्य नियमो का पालन आवश्यक होता है ही, कुछ अन्य नियम भी हैं, जिनका पालन करना आवश्यक होता है। प्राचीन कालीन ऋषि मुनियों ने इनका परीक्षण कर इनको अनुभूत किया तत्पश्चात इनकी व्यावहारिक उपयोगिता एवं प्रभाव को स्वीकार किया।
अनुभव के आधार मन्त्र विधान के अन्तर्गत साधक को जो निर्देश दिये गये है वे इस प्रकार से हैं -
♦ स्थान की भांति समय भी निश्चित रहे। साधना नियमित होनी चाहिए।
♦ स्नान करके शुद्ध व स्वच्छ वस्त्र पहनकर साधना स्थल में जाना चाहिए।
♦ दिनभर के पहने हुए वस्त्र अनुष्ठान के समय नहीं पहनने चाहिए।
♦ वस्त्र कम से कम हों। सिला हुआ वस्त्र पहनना वर्जित है।
♦ साधना स्थल पूर्णतया शान्त, सुरक्षित और एकान्त में हो।
♦ साधना काल में भोजन शुद्ध, सात्विक और सूक्ष्म होना चाहिए।
♦ साधना काल की अपनी अनुभूतियों का वर्णन नहीं करना चाहिए।
♦ आसन पर एक बार बैठ जाने पर बार-बार उठना उचित नहीं होता।
♦ बैठने में सदैव शरीर सीधा रहे, मेरुदण्ड को झुकना नहीं चाहिए।
♦ जप की माला का प्रदर्शन न करके उसे गोमुखी या किसी स्वच्छ वस्त्र से ढक लेना चाहिए।
♦ साधना के समय मानसिक चंचलता के निवारण हेतु इष्टदेव के चित्र पर ध्यान लगाना चाहिए। चित्र या मूर्ति, साधना स्थल पर पहले से स्थापित करना उपयुक्त होता है।
♦ गुरु अथवा किसी मन्त्रानुभवी व्यक्ति का सामीप्य भी अवश्य हो ताकि किसी प्रकार की असुविधा, भ्रम अथवा विध्न की स्थिति में मार्गदर्शन मिल सके।
♦ साधना के दिनों में साधक का व्यावहारिक जीवन भी स्वच्छ, निष्कपट, परोपकारी, दयालु, आस्थावान और कलुषरहित होना चाहिए।
♦ आपराधिक व्यक्ति, वातावरण, चर्या, दूश्य, विषय से नितान्त दूर रहना आवश्यक है। काम, क्रोध लोभ एवं द्धेष का अंकुर मन में नहीं उठना चाहिए।
♦ अपनी कोई त्रुटि समझ में आये, तो उसका निराकरण करके फिर से साधना प्रारम्भ कर देनी चाहिए।
♦ विध्न बाधा की स्थिति में विचलित न होकर, परम श्रद्धा और तन्मयता के साथ अनुष्ठान में लगे रहना आवश्यक है।
♦ किसी अपरिहार्य कारण से जैसे शौंचादि के लिए साधना के समय बीच में ही उठना पड़ जाय, तो पुनः हाथ, पैर, मुंह धोकर, शुद्ध भाव से बैठना चाहिए। ऐसी स्थिति में प्रायश्चित स्वरूप एक माला का जाप अधिक करना आवश्यक होता है।
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