ज्योतिषशास्त्र : वैदिक पाराशर

ग्रह के निर्बल अथवा प्रबल होने से कौनसे रोग ठीक अथवा उत्पन्न होते हैं, जाने !

Sandeep Pulasttya

8 साल पूर्व

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मानव शरीर पर नव ग्रह के कारण विभिन्न प्रकार के प्रभाव पड़ते है | नव ग्रहों की शुभता एवं अशुभता से मानव शरीर में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते है जिनकी समीक्षा निम्नवत की जा रही है :

 

सूर्य :

नवग्रहों में सूर्य ग्रह अग्नि तत्व प्रधान ग्रह है। अग्नि तत्व एवं पित्त में घनिष्ट सम्बन्ध है। अतः पित्त पर नियंत्रण सूर्य ग्रह का ही है। जब जातक की जन्म कुंडली में सूर्य ग्रह शुभ स्थिति में स्थित होता है तो सूर्य ग्रह का प्रभाव पित्त को निर्दोष रखता है किन्तु जातक की जन्म कुंडली में सूर्य ग्रह अशुभ स्थिति में पहुँचते ही अनेक प्रकार के पित्तजन्य विकार उत्पन्न होने प्रारम्भ हो जाते है। पित्त का सम्बन्ध मानव देह में स्थित रक्त से भी है, अतः प्रतिकूल सूर्य मानव में रक्त सम्बंधित दोषों एवं विकारों को बढ़ाता है।

 

चन्द्रमा :

नवग्रहों में स्थित चन्द्रमा ग्रह जल तत्व प्रधान होने के कारणवर्ष कफ को प्रभावित करता है। मानव देह में कफजन्य रोगों की उत्पत्ति में चन्द्रमा ग्रह की अशुभ स्थिति काफी हद तक कारक है। चूँकि चन्द्रमा मन का प्रतीक है, अतः मानसिक रोग, हृदय रोग, घड़कन, रक्तचाप, क्षय तथा मूत्रेन्द्रिय सम्बंधित रोग भी चन्द्रमा ग्रह की प्रतिकूलता के कारण उत्पन्न हो जाते हैं।

सौन्दर्य, प्रणय, भावुकता, कवित्व, विलास आदि में जहाँ चन्द्रमा ग्रह की शुभ स्थिति हितकारी होती है, वहीं प्रतिकूल स्थिति होने पर यह ग्रह उक्त वर्णित कारकों से सम्बंधित अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न कर देता है। कफ से सम्बंधित प्रायः सभी विकारों में चन्द्रमा की प्रतिकूलता ही मूल कारण रहती है।

 

मंगल :

नवग्रहों में स्थित मंगल ग्रह अग्नि तत्व की प्रधानता युक्त सर्वाधिक उग्र ग्रह माना गया है। अग्नि तत्व की प्रधानता युक्त होने के कारणवर्ष मंगल ग्रह के प्रतिकूल प्रभाव से मानव देह में  रक्त सम्बन्धित विकार उत्पन्न हो जाते है।

मानव की जन्म कुंडली स्थित अकेला सूर्य ग्रह प्रतिकूल स्थिति में विकार में वृद्धि उत्पन्न करता है, किन्तु यदि मंगल ग्रह भी प्रतिकूल स्थिति में है, तब वह रक्त सम्बंधित विकारों में वृद्धि उत्पन्न कर पीड़ा में कई गुनी वृद्धि कर देता है। वैसे भी रक्त एवं पित्त एक दूसरे के बहुत निकटवर्ती हैं एवं एकसाथ कुपित होने पर भयंकर उत्पात मचाते हैं।

मानव देह में स्थित रक्त को मंगल ग्रह नियंत्रित करता है ऐसा ज्योतिषाचार्यों का मत है। जब किसी मानव की जन्म कुंडली में मंगल ग्रह प्रतिकूल अथवा कुपित अवस्था में होता है तो रक्त सम्बंधित विकार उत्पन्न करता है। किसी अन्य ग्रह की अशुभ युति जैसे मंगल ग्रह एवं चन्द्रमा ग्रह की युति में रक्त विकार की समस्या में और अधिक वृद्धि हो जाती है। यही नहीं रक्त विकार  से उत्पन्न होने वाले चर्म सम्बंधित रोगों का कारक मंगल ग्रह ही है। रक्त स्राव, चोट, घाव आदि की उत्पत्ति भी मंगल ग्रह के प्रतिकूल प्रभाव से ही होती है।

वस्तुतः पित्त पर सूर्य ग्रह का प्रभाव रहता है, अतः शिरारोग, पीड़ा, चक्कर, नेत्र विकार जैसी व्याधियों का कारक सूर्य ग्रह ही माना जाता है। परन्तु विपरीत दशा के मंगल ग्रह का प्रभाव इन विकारों व रोगों में वृद्धि कर इन्हे अत्यधिक कष्टकारी बना देता है। मिर्गी, विक्षिप्तता, भ्रम जैसी व्याधियाँ मंगल ग्रह के कारण जनित होती हैं। अग्नि तत्व का स्वामीत्व रखने वाले ये दोनों ग्रह सूर्य एवं मंगल चूँकि रक्त-पित्त के अधिकारी हैं अतः इनकी प्रतिकूल स्थिति में अनेक प्रकार के पित्त सम्बंधित विकार, आंत सम्बंधित विकार, ज्वर, मंदाग्नि, अतिसार एवं अजीर्ण जैसे घातक रोग व व्याधियां आ घेरती है।

 

बुध :

बुध ग्रह की स्वमं की कोई सत्ता नहीं है। यह सबकुछ कर सकता है और कुछ भी नहीं अर्थात बुध ग्रह कुंडली में जिस ग्रह के साथ बैठ जाये उसी के जैसा आचरण व उसी ग्रह का समर्थन करने लगता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है की बुध ग्रह सर्वथा निस्तेज है। इस ग्रह का सम्बन्ध मनुष्य के मस्तिष्क के साथ जुड़ा है। बुध ग्रह पृथ्वी प्रधान होने के नाते वात, पित्त एवं कफ तीनों दोषों से निकटवर्ती सम्पर्क रखता है।

बुध ग्रह यदि किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में प्रतिकूल स्थिति में आ जाये तो इसके कारण सम्बंधित व्यक्ति को, विभिन्न प्रकार की शारीरिक व मानसिक व्याधियाँ, घेर लेती हैं। बुद्धि विक्षेप, विस्मृति, भ्रम, अनिद्रा, मन्दाग्नि तथा गुप्तांग सम्बंधित रोग बुध ग्रह की प्रतिकूल अथवा अशुभ स्थिति में ही उत्पन्न होते हैं।

उक्त वर्णित रोगों व व्याधियों के अलावा बुद्ध ग्रह अपने साथ स्थित ग्रहों से पूरी मैत्री निभाता है। जो ग्रह जैसी स्थिति में रहता है, उसके तत्कालीन प्रभाव में यह वृद्धि करता रहता है।

 

बृहस्पति :

नवग्रहों में सर्वाधिक पूजनीय गुरु अथवा बृहस्पति ग्रह आकाश तत्व प्रधान है एवं अपने पीले वर्ण के कारण पित्त से विशेष सम्बन्ध रखता है। पित्त विकारों की उत्पत्ति अथवा चर्म सम्बंधित रोगों आदि में बृहस्पति ग्रह की विपरीतता अथवा अशुभ स्थिति में होना ही निश्चित कारक होता है। आकाशीय तत्व प्रधान होकर भी यह पित्त को प्रभावित करता है।

 

शुक्र :

नवग्रहों में ग्रह शुक्र भी चन्द्रमा ग्रह की भाँति जल तत्व प्रधान ग्रह है अतः कफ प्रकृति वाले व्यक्तियों को प्रतिकूल स्थिति में कष्ट प्रदान करता है। शुक्र ग्रह, चन्द्रमा ग्रह संग युति की स्थिति में कफ पर विशेष प्रभाव दिखाता है। वस्तुतः एकल स्थिति में भी यह एक प्रबल ग्रह है। मुनष्य की जननेन्द्रियों की चेतना, सुरक्षा, व्यवस्था एवं विकृति के नियंत्रण में शुक्र ग्रह का विशेष योगदान है। जन्म कुंडली में अनुकूल स्थिति में होने पर जहाँ यह व्यक्ति को काम सुख देता है वहीँ विपरीत स्थिति में होने पर यह व्यक्ति को अतिकामुक, काम में अतृप्त, कुण्ठाग्रस्त, नपुंसक, रतिज रोगी, दुर्बल, ऐन्द्रिय विकारों से ग्रस्त एवं अन्ततः क्षय रोगी भी बना देता है।

 

शनि :

नवग्रहों में स्थित शनि ग्रह मानव देह में मुख्य रूप से वात संस्थान को तो प्रभावित करता ही है परन्तु साथ ही साथ कफ तत्व को भी वह प्रभावित कर लेता है। अतः मानव देह में स्थित कफ एवं वात दोनों ही तत्वों पर शनि ग्रह का नियन्त्रण रहता है। मानव जन्म कुंडली में यदि शनि ग्रह शुभ एवं अनुकूल होता है तो ऐसी स्थिति में शनि की कृपा से ये दोनों तत्व सन्तुलित अवस्था में रहते हैं जबकि प्रतिकूल एवं विपरीत अवस्था में अनेक प्रकार के वात सम्बंधित विकारों एवं कफ जनित विकारों को उत्तेजित कर शनि ग्रह मानव देह को रोगों का घर बना देता है।

शनि ग्रह के प्रतिकूल प्रभाव से ग्रस्त वात एवं कफ तत्व के दुष्प्रभाव प्रबल होने के कारणवर्ष प्रायः गठिया, दमा, पक्षाघात जैसी व्याधिया मानव देह को आक्रान्त कर लेती हैं। आँतों, बालों एवं त्वचा पर भी शनि की दृष्टि रहती है। यदि अनुकूल है, तब तो सुखद है; किन्तु प्रतिकूल स्थिति में भयंकर क्लेश देती है।

 

राहु :

नवग्रहों में स्थित राहु ग्रह एक छायाग्रह है। यह ग्रह मुख्य रूप से वात प्रधान होने के कारण मानव देह में प्रतिकूल स्थिति में अनेक प्रकार के वात सम्बंधित विकार जनित कर देता है। अर्श अथवा बवासीर एवं भगन्दर आदि रोग की उत्पत्ति में राहु ग्रह का प्रतिकूल प्रभाव प्रमुख कारण बनता है एवं अन्य विभिन्न प्रकार की वात सम्बन्धी अथवा जनित विकार जैसे गठिया, जोड़ों का दर्द, सूजन, अकड़न, कंपवात, शून्यता, अपंगता, मानसिक तनाव, अनिद्रा, भ्रम, मूर्छा   एवं चित्त विक्षेप आदि उत्पन्न करने में राहु ग्रह की प्रतिकूलता एक प्रमुख कारक के रूप में सक्रिय रहती है।

 

केतु :

नवग्रहों में स्थित राहु एवं केतु ग्रह वस्तुतः एक ही शरीर, प्राण एवं विचार हैं। दैवीय घटनाक्रम के कारणवर्ष ये दो भागों में विभक्त हो गये है; किन्तु इनके प्रभाव क्षेत्र में लेसमात्र का ही अंतर है। अधिकांश गुण दोषों में भी दोनों एकसमान ही हैं। जिस प्रकार से केतु ग्रह का दुष्प्रभाव व्यक्ति को गुप्त रोगों व नेत्र विकारों एवं पाण्डु व आंत्रदोष जैसे रोगों से भी आक्रान्त कर देता है।

इस प्रकार, नवग्रह मानव देह को भिन्न भिन्न प्रकार व रूपों से प्रभावित करते हैं एवं उनकी प्रतिकूल व अशुभ स्थिति विभिन्न प्रकार के भयानक रोगों एवं विकारों की उत्पत्ति कर मानव देह को कष्ट एवं पीड़ा पहुंचाती है।

 

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