ज्योतिषशास्त्र : वैदिक पाराशर

लग्न में ग्रहों का प्रभाव

Sandeep Pulasttya

4 साल पूर्व

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लग्न में स्थित ग्रह अपने नैसर्गिक गुणों, भाव के स्वामित्व तथा लग्न में स्थित राशि के स्वामी के साथ अपने सम्बंध के कारण पृथक-पृथक फल देते हैं।  यहाँ हम लग्न में विभिन्न ग्रहों के स्थिति होने से उनके सामान्य रूप से पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करेंगे

सूर्य -

सूर्य का जीवन और शक्ति पर अधिकार हैं. इसीलिये, लग्न में सूर्य जातक को प्रबल इच्छा शक्ति, स्वास्थ्य और आत्म  विश्वास देता हैं।  सौरमंडल का केन्द्र होने के कारण यह सत्ता, अधिकार, राज्य कृपा और मान-सम्मान देता हैं।  व्यक्ति के स्वभाव में दृढता, धैर्य, स्वाभिमान और महत्वाकान्क्षा विद्यमान रहती हैं उसमें नेतृत्व के गुण होते हैं। वह अपने अधिकारों के प्रति सजग रहता है। अपने अधिकारों का हनन उसके लिये असहनीय होता है सूर्य अग्नि तत्व का ग्रह होने के कारण, लग्न का सूर्य व्यक्ति को क्रोधी, हठी, आक्रामक और क्षमा करने में

असमर्थ बनाता है परंतु वह साहसी, और पराक्रमी होता है। बली सूर्य यदि लग्न में होता है तो वह व्यक्ति के नैतिक बल को बढा कर उसे श्रद्धा और विश्वास का पात्र बनाता है उत्तरायण् का सूर्य (मकर से मिथुन तक) व्यक्ति को अहंकारी, स्वार्थी और सत्ता का लोभी बनाता हैं। इसके विपरीत, दक्षिणायण (कर्क से धनु तक) व्यक्ति को विनम्र, दयालु और बुद्धिमान बनाता है।

 

चन्द्रमा -

चन्द्रमा मातृत्व, मस्तिष्क,कोमलता, संवेदनशीलता, उदारता तथा भावनाऔं और विचारों का प्रतिनिधित्व करता है। अतः लग्न में स्थित चन्द्रमा व्यक्ति को विनम्र, संवेदनशील, उदार और दूसरों का सम्मान करने वाला बनाता है,। ऐसा व्यक्ति परिवर्तनशील, संवेगी, मृदुभाषी तथा दूसरों के साथ अपने सुख दुख बाटंने के लिये तत्पर रहता है।

ऐसा व्यक्ति ललित कलाओं में रुचि रखने वाला, परिवार के प्रति ममत्व रखने वाला तथा जन सहयोग से लाभ पाने वाला होता है।

शुक्ल पक्ष का बढ़ता हुआ चन्द्रमा व्यक्ति को दीर्घ आयु तथा स्वस्थ देह देता हैं। जबकि कृष्ण पक्ष का घटता हुआ चन्द्रमा उक्त प्रभावों में कमी लाता है।

यदि लग्न में चन्द्रमा पीड़ित हो तो व्यक्ति को नेत्र रोग, सिर दर्द, अनिद्रा, नजला जुकाम, मस्तिष्क रोग आदि होते हैं। महिलाओं में चन्द्रमा मासिक धर्म का कारक होने के कारण यदि पीड़ित हो तो उक्त कार्यों में कष्ट देने वाला होता है।

 

मंगल -

मंगल शक्ति और ऊर्जा का प्रतीक हैं।  अतः लग्न में होने से यह व्यक्ति को साहस, बल और पराक्रम देता हैं। मंगल अग्नि तत्व का गृह है और मेश राशि का स्वामी हैं। अतः ऐसा व्यक्ति आवेशी तथा आक्रामक स्वभाव का होता हैं। वह तुरन्त निर्णय लेने वाला तथा आवेश में कुछ भी करने वाला होता है। वह स्पश्टवादी होता है।

ऐसा व्यक्ति महत्वाकांक्षी, आत्म विश्वास से परिपूर्ण तथा कठिन परिश्रम करने वाला होता हैं। वह क्रूर स्वभाव, कठोर परंतु साहसी होता है। यदि ऐसा मंगल पाप प्रभाव से युक्त हो तो मॉसपेशियों के रोग, रक्त विकार या प्रजनन सम्बन्धी रोग या विकार देता है।

 

बुध -

बुध ग्रह बुद्धिमत्ता, एकाग्रता, सतर्कता, शिक्षा, स्मरण शक्ति तथा मानसिक शक्ति का कारक है।  यह वाणी, कम दूरी की यात्राओं, संचार तथा संप्रेशण, अन्तः प्रेरणा तथा विश्लेषण शक्ति का भी ग्रह होता हैं।

यदि यह लग्न में स्थित हो तो व्यक्ति बुद्धिमान, जिज्ञासु तथा तर्क संगत दृश्टि कोण वाला होता है।  वह गणित में कुशल तथा कार्य दक्षता से सम्पन्न होता हैं।  वह निरीक्षण तथा गहन अध्ययन में कुशल होता हैं।  वह किसी बात को शीघ्र समझ लेता है।  बुध को युव राज माना गया है अतः ऐसा व्यक्ति हास-परिहास तथा खेल-कूद में रुचि लेने वाला होता हैं।

बुध की दोनो राशियां द्विस्वभाव होने के कारण व्यक्ति में परिस्थितियों के अनुरूप स्वंय को ढाल लेने की अद्भुत क्षमता होती है।  बुध चपल ग्रह होता है अतः जिस व्यक्ति के लग्न में बुध होता है वह व्यक्ति चपल होता है और उसकी समस्त क्रियायें, चाल, वार्ता, सोच-विचार आदि फुर्तीली होती हैं । वह निश्चल बैठना पसन्द नही करता हैं।

यदि बुध पीड़ित हो तो व्यक्ति धूर्त, झूठ बोलने वाला, शेखी खोर तथा कमजोर निर्णय क्षमता वाला होता है।

 

बृहस्पति -

बृहस्पति ग्रह सन्तान का कारक होता हैं।  यह धार्मिक झुकाव वाला, उदार, ज्ञान के प्रति रुचि, समृद्धि, सौभाग्य तथा लोकप्रियता का प्रतीक हैं। यदि बृहस्पति लग्न में होता है तो व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठित होता हैं।  उसे सत्ता, अधिकार तथा राज्य- कृपा प्राप्त होती है।

ऐसा व्यक्ति उदार हृदय, धार्मिक तथा नैतिक मूल्यों में आस्था और विश्वास रखने वाला होता हैं। वह आत्म विश्वास से परिपूर्ण होता हैं। वह मिलनसार होता है तथा उसके परिचितों का दायरा व्यापक होता हैं। उसका व्यक्तित्व प्रभावशाली और प्रशंसनीय होता हैं।

यदि बृहस्पति पाप प्रभाव में हो तो व्यक्ति अहंकारी भ्रष्ट, दुराचारी तथा अपने में केन्द्रित होता हैं। वह अपव्ययी तथा अति वादी होता हैं।  उसकी मनोवृति संकुचित होती है।

 

शुक्र -

शुक्र ग्रह कला, सौन्दर्य, स्नेह, सहयोग, सुख, वैभव आदि का कारक होता हैं। यह प्रेम भावनाओं, वाहन, वैभव पूर्ण वस्तुओं और आकर्षण, आदि का भी करक होता है। अतः यदि शुक्र किसी की कुण्डली में लग्न में स्थित हो तो ऐसा व्यक्ति प्रसन्न चित्त, मनमोहक तथा कलात्मक रुचि से सम्पन्न होता हैं। वह संवेदनशील, दयालु तथा सभी से सहानुभूति पूर्ण तथा मित्रवत व्यवहार करने वाला होता हैं।

ऐसा व्यक्ति आकर्षक व्यक्तित्व वाला, समृद्ध और सद्गुण सम्पन्न होता हैं। उसकी प्रवृत्ति सजने सवंरने तथा स्वयं को आकर्षक बनाये रखने की होती हैं।  ऐसा व्यक्ति विपरीत लिंग वाले व्यक्तियों से मित्रता और स्नेह के कारण लाभ और सफलता प्राप्त करता है।

यदि शुक्र पीड़ित हो तो सुन्दरता में कमी, कामी स्वभाव और अनैतिक जीवन प्रदान करता हैं। शत्रुता, ईर्ष्या, हिंसा, दुखद वैवाहिक जीवन आदि बातें शुक्र के पाप प्रभाव में होने के कारण होती हैं।  व्यक्ति लोभी और विलासी होता हैं। ऐसा व्यक्ति छल कपट करने में प्रवीण और मिथ्याचारी होता है।

 

शनि -

शनि ग्रह परिपक्वता और आत्म अनुशासन का प्रतीक हैं। इसके साथ निर्धनता और विपन्नता जुड़ी है जिससे व्यक्ति अहंकार, आक्रामकता और दर्प आदि से दूर हो जाता हैं। शनि दंड अधिकारी हैं। यदि कोई व्यक्ति इसके निर्देशों का पालन नहीं करता है तो यह दण्ड देता हैं। यही कारण है कि शनि को पापी ग्रह माना गया है अतः शनि यदि लग्न में बली हो कर स्थित हो तो व्यक्ति में गम्भीरता, दूरदर्शिता, परिपक्वता, सजगता और

जिम्मेदारी आदि सदगुण आ जाते हैं.। वह गहन अध्ययन मनन में रुचि लेने वाला, एकाकी, परिश्रमी, अंतर्मुखी तथा सादगी पसन्द होता हैं।  वह भावुक नहीं होता और सभी बातों पर न्याय, नीति, नियम के अनुसार विचार करता हैं।  उसके मित्रो की संख्या कम होती है क्योकि वह एकाकी रहना पसन्द करता है। यदि शनि पीडित हो तो रोग और पीड़ा देने वाला होता हैं।  ऐसा व्यक्ति दरिद्रता, दुराचरण, अकर्मण्यता, आलस्य आदि से पीड़ित होता है

 

राहु -

लग्न में राहु शुभ युक्त या दृष्ट होने से जातक प्रभावपूर्ण, आकर्शक व्यक्तित्व वाला, स्वावलम्बी तथा अपने प्रयास से धन लाभ, यश व मान-प्रतिष्ठा पाने वाला होता है। वह महत्वाकांक्षी होता है।

यदि लग्न में राहु पाप ग्रहों से पीड़ित होकर स्थित हो तो जातक बातूनी, अनैतिक कार्यों में रुचि लेने वाला, झगड़ालू, हठी व कपट व्यवहार करने वाला होता है। उसमें असंतुष्टि का भाव होता है। उसे सदैव यह अनुभूति होती है कि उसको जो प्राप्त हुआ है, वह उसकी योग्यता व हैसियत से बहुत कम है।

 

केतु :

लग्न में केतु यदि शुभ ग्रहों से युत अथवा दृष्ट होकर स्थित हो तो जातक को राजसी सुख तथा वैभव देता है। शनि की राशि में केतु स्थित होने से जातक धनी व संतान का सुख प्राप्त करने वाला होता है। पाप ग्रहों से पीड़ित केतु लग्न में हो तो जातक को रोग, चिंता, लोभ, दुष्ट व्यक्तियों से भय, पीड़ा तथा वातरोग देता है। जातक में छल कपट की प्रवृत्ति होती है। वह पारिवारिक सुख में कमी के कारण चिंतित व व्यग्र रहता है तथा संबंधियों से कष्ट व क्लेश पाता है। कोई जातक निराश, हताश, दुखी, अकर्मण्य, स्वार्थी, कुरुप व जड़मति होता है।

 

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