7 साल पूर्व
संसार में जब भी कोई जातक, चाहे वह पुरुष हो अथवा कन्या किसी न किसी नक्षत्र में अवश्य ही जन्म लेता है। यूँ तो जन्म नक्षत्रों का अशुभ अथवा शुभ फल दोनों अर्थात पुरुष अथवा कन्या जातक पर सामान रूप से पड़ता है किन्तु स्त्री जातक के जन्म काल समय के नक्षत्र सम्बंधित ज्योतिष शास्त्र में विभिन्न फलादेशों का उल्लेख मिलता है।
यहां कुछ उन विशेष नक्षत्रों से सम्बंधित विवेचन प्रस्तुत हैं जिन्हे ज्योतिष शास्त्र के अनुसार स्त्री जातक के लिए अशुभ फलदायी अथवा अनिष्टकारी समझा गया है -
ज्योतिष शास्त्र के मतानुसार जो स्त्री ज्येष्ठा नक्षत्र में जन्म लेती है, तो ऐसी स्त्री अपने ज्येष्ठ अर्थात पति के बड़े भाई की मृत्यु का कारण बनती है। ज्योतिष शास्त्र में ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि जो स्त्री आश्लेषा नक्षत्र में उत्पन्न हुई होती है, तो ऐसी स्त्री विवाहोपरांत अपनी सास के लिए अनिष्टकारी सिद्ध होती है। जो स्त्री मूल नक्षत्र में उत्पन्न हुई होती है, तो ऐसी स्त्री अपने श्वसुर के लिए अनिष्टकारी सिद्ध होती है। जो स्त्री विशाखा नक्षत्र में उत्पन्न हुई होती है, तो ऐसी स्त्री अपने देवर अर्थात पति के छोटे भाई के लिए घातक सिद्ध होती है। जो स्त्री चित्रा, आद्र्रा, आश्लेषा, शतभिषा, मूल, कृत्तिका अथवा पुष्य नक्षत्र में उत्पन्न हुई होती है, तो ऐसी स्त्री वंध्या, विधवा, मृतसुता अर्थात ऐसी स्त्री जिसके बालक होकर मर जाते हैं, स्वामी से परित्यक्ता अर्थात ऐसी स्त्री जिनके पति उन्हें छोड़ देते हैं अथवा निर्धन होती है।
यहां कुछ उन विशेष नक्षत्रों से सम्बंधित विवेचन प्रस्तुत हैं जिन्हे ज्योतिष शास्त्र के अनुसार स्त्री जातक के लिए शुभ फलदायी समझा गया है -
किसी स्त्री की जन्म कुंडली में यदि लग्नेश, सप्तमेश, नवमेश एवं जिस राशि में चंद्रमा स्थित है, उसका स्वामी शुभग्रहों के उत्तम भावों में स्थित हों एवं अस्त न हो रहा हो, तो ऐसे योग में जन्म लेने वाली स्त्री भाग्यशालिनी, सुंदरी, बंधुओं में पूज्य एवं पुण्य कर्म करने वाली होती है। ऐसी स्त्री अपने पति से अत्यधिक प्रेम करने वाली, कल्याणशीलता, सच्चरित्रा, सतपुत्रवती होती है। जिस स्त्री की जन्म कुण्डली के अष्टम भाव पर जितने अधिक शुभ ग्रहों की दृष्टि होती है, उतने ही अधिक काल तक ऐसी स्त्री सुहागन रहती है।
ज्योतिष शास्त्र में किसी स्त्री के गर्भ धारण की संभावना के सम्बन्ध में विवेचन करते हुए यह बताया गया है कि जब किसी स्त्री का मासिक धर्म उस समय प्रारंभ हो जबकि चंद्रमा गोचरवश जन्म कुण्डली में अनुपचय पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, आठवें, नवें, बारहवें भाव में हो एवं मंगल ग्रह की पूर्ण दृष्टि उस पर पड़ रही हो, तो उस महीने ऐसी स्त्री का गर्भ धारण कर सकती है। यदि गोचर कुण्डली में चंद्रमा उक्त बताये गए भाव में नहीं है, तो ऐसी स्त्री को उस महीने में गर्भ नहीं रहेगा अर्थात उस महीने सम्बंधित स्त्री गर्भ धारण करने में सफल नहीं हो पाएगी।
यदि किसी पुरुष जातक की जन्म कुण्डली में चंद्रमा उपचय स्थान अर्थात तीसरे, छठे, दसवें अथवा ग्यारहवें भाव में हो एवं ब्रह्रास्पति की उस पर पूर्ण दृष्टि पड़ रही हो, तो ऐसे समय स्त्री गर्भ धारण करने में सफल हो सकती है। यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए की गर्भ धारण त्याज्य समय बचाकर ही करें। शास्त्रों में गर्भ धारण हेतु त्याज्य समय की विवेचना करते हुए बताया गया है कि, किसी भी एकादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, माता अथवा पिता के श्राद्ध का दिन आदि के दिन गर्भ धारण की चेष्टा न करें। ऐसे लग्न में, जिस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि अधिक पड़ रही हो एवं जब चंद्रमा पर भी शुभग्रहों की दृष्टि अधिक पड़ रही हो, तो ऐसे समय गर्भ धारण करना श्रेयस्कर होता है।
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